नई दिल्ली: सबसे पहले जान ले कि न्यूनतम वेतन होता क्या है और इसको कब पारित किया गया . न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 (Minimum Wages Act, 1948) भारत की संसद द्वारा पारित एक श्रम कानून है जो कुशल तथा अकुशल श्रमिकों को दी जाने वाली मजदूरी का निर्धारण करता है. यह अधिनियम सरकार को विनिर्दिष्ट रोजगारों में कार्य कर रहे कर्मचारियों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने के लिए प्राधिकृत करता है. इसमें उपयुक्त अन्तरालों और अधिकतम पाँच वर्षो के अन्तराल पर पहले से निर्धारित न्यूनतम मजदूरियों की समीक्षा करने तथा उनमें संशोधन करने का प्रावधान है.
जानकारी के लिए बता दूँ कि 23 वर्ष के बाद दिल्ली सरकार ने 15 सदस्यीय बोर्ड बनाकर जिसमे सरकार के प्रतिनिधि, मजदूर के प्रतिनिधि और मालिकों के प्रतिनिधियों के सिफारिश को मानते हुए नया न्यूनतम वेतन की घोषणा की गई. जिसका गजट नोटिफिकेशन दिनांक 3 मार्च 2017 को जारी भीं कर दिया गया. मगर कॉरपोरेट्स मिडिया के लोग मजदूरों के बीच भ्रम फैलाने की पुरजोर कोशिस में लगे है कि न्यूनतम वेतन की फाईल राष्ट्रपति ने लौटा दी.
आप लोग भरम में न आये और इस गजट नोटिफिकेशन को डाउनलोड करें और अपने विभागों में मांग करें. सरकार ने आपके लिए कानून बना दिया अगर अब आप संगठित होंगे और आपके संगठन में ताकत होगी तो मालिकों को आपकी मांग माननी पड़ेगी. अब जानकारी लेने की बात यह है कि आखिर राष्ट्रपति महोदय के पास कौन सी फाईल गई और जिसको उन्होंने लौटायी. दिल्ली में न्यूनतम वेतन देने में अनियमितता बरतने वाले नियोक्ताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने वाले 'आप' सरकार के न्यूनतम वेतन (संशोधन) विधेयक 2015 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पुनर्विचार के लिए सरकार के पास भेजा था. दिल्ली सरकार ने मजदूरों के हक में यह प्रावधान ला रही है कि जिस मजदूर का संस्थान से विवाद चल रहा है,
श्रम विभाग या अदालत में मामला लंबित है, इसका फैसला होने तक श्रमिक को संस्थान से न निकाला जाए. जो ठेकेदार या प्रबंधन नियमों का उल्लंघन करेगा, उससे 25 हजार तक जुर्माना व एक साल तक की सजा का प्रावधान रखा गया है. मौजूदा समय में पांच सौ रुपए व छह माह की सजा का प्रावधान है. बिल में यह भी प्रस्ताव किया गया है कि मजदूरों के लंबित मामलों का फैसला समयबद्घ सीमा में हो. न्यूनतम वेतन न देने पर ठेकेदार व संस्थान मालिक पर 50 हजार जुर्माना व तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है. इस सजा के प्रावधान वाली फाइल राष्ट्रपति महोदय ने लौटाई है. जो कि निंदनीय है.
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अब हम दिल्ली हाईकोर्ट में इस नये न्यूनतम वेतन के खिलाफ लगे याचिका की जानकारी पर बात कर लें जो कि पिछले 16 मार्च 2017 कि सुनवाई में माननीय कोर्ट ने अगली सुनवाई 19 अप्रैल 2017 तक मालिकों को राहत दी है. मगर यह सवाल यह उठता है कि मालिकों को यह राहत कब तक मिल पायेगी. जबकि नया न्यूनतम वेतन को लागु करने का जब कानून बन गया है और कोर्ट भी कानून के आधार पर ही फैसला देती है.
एक बात और गौर करने की है कि अगर कोई मजदुर अपनी नौकरी बचाने कि गुहार करता है जिस नौकरी से पूरा परिवार का पेट भरता है तो सारे तंत्र अपना आँख कान बंद कर लेते है. इस मंहगाई के दौर में लाखों मजदूरों को राहत देने वाला कानून और सुप्रीम कोर्ट के सामान काम के सामान वेतन की अनदेखी कर कोर्ट का रोक लगाना दुर्भाग्य पूर्ण है.
अभी खुद माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ही 26 अक्टूबर 2016 को सामान काम का सामान वेतन देने का आदेश दिया है. जबकि ठीक इससे पहले भारत सरकार ने सातवां वेतन आयोग कि सिफारिश के तहत केंद्रीय सरकारीकर्मियों को न्यूनतम वेतन 18000 मासिक लागु किया है. एक ही छत के नीचे काम करने वाले कर्मचारियों के लिए अलग-अलग न्युनतम वेतन क्यों? किसी भी सरकार या कोर्ट को दिल्ली सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन 13350 पर आपत्ति नही होनी चाहिए. मतलब स्पष्ट है कि दिल्ली क्या पुरे देश में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान करते हुए न्यूनतम वेतन 18000 लागु होनी चाहिए.
अभी दिल्ली सरकार ने न्यूनतम वेतन लागु किया है तो ऐसा नही कि उन्होंने मजदूरों को भीख में या भेट दी है बल्कि पिछले कई वर्षों से मजदुर संघर्ष के दबाब का परिणाम है. केजरीवाल सरकार ने चुनाव से पहले ठेका वर्कर को पक्का करने के करना सत्ता में आयी और जो कि 2 वर्ष विताने के बाद भी को कदम नही उठाया. उस वादा के सामने यह न्यूनतम वेतन "ऊंट के मुंह में जीरा का फ़ोरान जैसा ही है. मगर इस मंहगाई में मजदूरों कि राहत देने वाला है. जिसकों लेने से दुनिया कि कोई ताकत नही रोक सकती.